मीडिया में लंबे समय से उच्च जाति का कब्जा है। पहले विभिन्न विचारधाराओं से जुडे लोग पत्रकारिता करते थे, लेकिन आज विचार गौण हो गया है। वर्तमान के मीडियाकर्मियों पर जाति व वर्ग की भावना से प्रेरित होकर खबरें लिखते है इस बात से कोई भी बुद्धिजीवी इंकार नहीं कर सकता। एक सर्वेक्षण के अनुसार बिहार की मीडिया में लगभग 73 प्रतिशत हिन्दु स्वर्णो का कब्जा है। जिसमें 30 प्रतिशत ब्राहमण , 10 प्रतिशत भूमिहार , 17 प्रतिशत राजपूत और 16 कायस्थ हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मीडिया को सिर्फ विज्ञापन का अर्थशास्त्र नहीं उसका समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र भी प्रभावित करता है। दरअसल लालू प्रसाद हाथ में मंडल का लाठी लेकर सता में आए में थे। इस लाठी के बदौलत वे सामंतवाद को ध्वस्त कर बैकवर्डवाद को स्थापित करने में जुटे थे। वह वक्त सामाजिक उभार का था। जातीय आधार पर समाज बॅटा था। मीडिया में कार्यरत लोग भी इसी समाज के हिस्सा थे। सामाजिक-संघर्ष के इस दौर को स्थानीयं मीडिया ने हमलावर रूख अख्तियारकरते हुए लालू के अच्छे भले कामों को भी जंगल राज घोषित किया था। अगर लालू के सामाजिक उभार का वक्त जंगल राज था, तो श्रीकृष्ण सिंह का शासन काल को स्वर्ण काल किस आधार पर ? यह भी खेल तो मीडिया का ही है। बताते चलें कि आजादी के वक्त लगभग 1 लाख जमीन्दार थे। जिसमें 40 हजार जमीन्दार उनके स्वजातीय थे। जमींन्दारी जुल्म चरम पर था , राजनीति से जाती के रिश्ते कोमजबूत करने आरोप भी इन्ही पर लगता है। राजनीति से प्रेरित हत्याओं की शुरूआत भी इन्हीं के कार्यकाल में हुआ। फिर लालू प्रसाद बनाम श्रीकृष्ण सिंह के शासनकाल के तुलनात्मक अध्यन्न में किए जा रहे बौद्धिक बेईमानी के पीछे कौन सा अर्थशास्त्र काम कर रहा है ? लालू को तो इस स्वर्णवादी मीडिया ने जान बूझकर बदनाम किया था क्योंकि वो लालू जी की लोकप्रियता को पचा नहीं पा रहे थे ?

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