हां मैं यादव हूं…

आप मुझे यादव कह सकते हैं। भारतीय संविधान में मुझे पिछड़ा वर्ग की संज्ञा दी गयी है। मार्क्सवादियों ने मुझे जाति के रुप में सम्मान भले ही न दिया हो लेकिन मध्यवर्ती जाति के रुप में मेरे अस्तित्व पर उनके हमलों ने अबतक मेरी मार्क्सवादी प्रासंगिकता को जीवित रखा है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में मेरा बड़ा सम्मान है। यहां तक कि संपूर्ण सृष्टि के निर्माण में मेरी भूमिका की बात स्वीकारी गयी है। गीता का उपदेश भी मेरी ही जाति के काले-कलुठे कृष्ण के मुख से कहवाया गया। विश्व स्तर पर बात करूं तो मुझे सचमुच खुद पर गर्व भी होता है कि ईसाईयों का मसीहा भी मेरे शुक्राणुओं के कारण पैदा हुआ। इस्लाम के अस्तित्व में भी मैं शामिल रहा हूं। अलबत्ता आज के कट्टरपंथी भले ही इसको न मानें लेकिन सच को कौन छिपा सकता है।

मेरा अतीत मेरे अस्तित्व के समान कभी खंडित, कभी ठोस, कभी सजीव और कभी मृत रहा है। नहीं कह सकता कि ऐसा क्यों हुआ मेरे साथ। मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि गांधारी के शाप ने मेरा यह हाल किया। सच तो यह है कि गांधारी के शाप ने मुझे और परिष्कृत किया। कृष्ण और बलराम जैसे मठाधीशों का अंत हुआ। ऐसा होना ही था क्योंकि कालांतर में इन दोनों ने अपना जाति परिवर्तन कर लिया था और केवल नाम के यादव रह गये थे। कपोल कल्प्ति धर्म ग्रंथों की बात छोड़ भी दूं तो मेरा अस्तित्व हड़प्पा संस्कृति के दौरान था। इसके प्रमाण मिलते हैं। हालांकि भारतीय समाजिक व्यवस्था में मैं भी ब्राह्म्णों के कुचक्र का शिकार हुआ। यह भी तब हुआ जब में शरीर से बलिष्ठ और औकात वाला हुआ करता था। ब्राह्म्णों ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। मतलब यह कि न तो मैं सवर्ण में शामिल रहा और न ही शुद्र की श्रेणी में। बनिया मुझे कभी अपना मानते नहीं थे। उनकी नजर में अनाज में पत्थर मिलाना पुण्य का काम है और मेरे द्वारा दूध में पानी मिलाना बहुत बड़ा पाप। शासक ने कभी भी मुझे समाज से जुड़ने ही नहीं दिया। वैदिक युगों में मैं मथुरा से दूर यमुना के उस पार गोकुल में रहने को विवश था। वहीं आधुनिक भारत में मुझे शहर से अलग रहने को कहा गया है।

आश्चर्य होता है जब शहर में गंदगी और कचरे के लिए लोग मेरे उपर आरोप लगाते हैं। उनका कहना है कि मेरे कारण आवरा पशु सड़क पर होते हैं और गंदगी फ़ैलाते हैं। शासक भी उन्ही के जैसा है। सबको क्लीन क्लीन शहर चाहिए इसलिए मुझे वनवास दे दिया गया है। मैं और मेरी जाति के लोग शहर से दूर गांवों में रहने को मजबूर हैं। अलबत्ता उनसे कोई पूछे कि जितना नुकसान उनके एयरकंडीश्नरों से निकलने वाली गैसें ओजोन परत का करती हैं या फ़िर उनकी गाड़ियों से निकलने वाला धुआं जितना हमारे पर्यावरण को कुप्रभावित करता है, उन सबकी तुलना में गायें कैसे कर सकती हैं। यह सवाल इसलिए भी पूछा जाना चाहिए क्योंकि उनकी नजर में गाय उनकी माता के समान है।

राजनीतिक स्तर पर मेरी पहचान अब कमजोर पड़ने लगी है। शीर्ष नेताओं में शुमार मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव भी अब ब्राह्म्णों के गुलाम बन चुके हैं। सामाजिक न्याय की अवधारणा टूटने लगी है। सवर्ण मीडिया इस पूरे घटना को जातियों के बंधन टूटने के रुप में प्रस्तुत कर रहा है। यहां तक कि हमारे अपने भी अब यह समझने लगे हैं कि वे अब जाति से उपर की श्रेणी में आ चुके हैं, लेकिन सच तो सामने तब आता है जब डा कुमार विमल जैसे महान साहित्य सृजक को मरणोपरांत सम्मान देने में सरकार की कुर्सी हिल जाती है।

मेरी अबतक की पुरी कहानी केवल एक वाक्य में समेटी जा सकती है कि हम आजतक गोवार हैं। साक्षरता के मामले में हम अनेक दलित जातियों से पिछड़े हैं। धन संपत्ति सहेजने या फ़िर कमाने की कला मुझमें न तो पहले थी और न अब है। ब्राह्म्णों का सामाजिक संस्कार हम पूरी तरीके से अपना नहीं सकते हैं। ऐसा इसलिए कि हम स्वभाव से उज्ज्ड विद्रोही हैं। हर समय कृष्ण के बताये रास्ते पर केवल कर्म करते हैं फ़ल की चिंता नहीं करते हैं। नतीजा यह होता है कि हमारी मेहनत का फ़ल कोई सवर्ण खा जाता है और हम अपने भूखे-नंग-धड़ंग बच्चों के साथ मिलकर लोहे की रोटी चबाते रह जाते हैं।....

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